सफ़ेद कागज़ पे काले अक्षरों से गड़े
वोह कलम के धब्बों के बीच
अचानक ज़ाहिर होते मंज़रों में
मैं था हर कहीं ,
और नहीं भी था .
चूने पत्थर की बजाये , टेडी मेडी लकीरों से बने ,
उन दीवारों , उन कूचों , कभी न खत्म होते
गलियों के गलियारों में
मैं था हर कहीं
और नहीं भी था
रंगीन कांच से बनी इमारतें वोह
की जहाँ नंगाई दिखाने को भी चादर ओड़ते हैं लोग ,
शाम ढलते ही,
साफ़ कांच में बदल जाने वाली उस ईमारत में ,
मैं था हर कहीं
और नहीं भी था
पहन मुखौटा उसका जो वो थे न कभी
खुद को झुठला कर
दोहरी ज़िन्दगी जिए जा रही उस भीड़ में
मैं था हर कहीं
और नहीं भी था
बस इक ऊँगली के इशारे पे रंग बदलते ,
हँसते सूरज रोते सावन के बीच ,
जिन्न और परियों की मदहोश दुनिया में
मैं था हर कहीं ,
और नहीं भी था
के तभी किसी ने अचानक यूँ ही
उस अँधेरे कमरे में उजाला कर दिया
की मैं लौट आया उस जहान से जहाँ ,
मैं था हर कहीं
और नहीं भी था |
-Anonymous
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