कि ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी वो जो घड़ी के कांटो सी,
बेरंग, गुमराह चल रही है सफ़र पे,
हर रोज़ वापिस वहीँ लौट आने को|
करते हैं इंतज़ार सुबह को ऐसे,
कि भर दे चाभी कोई शाम तक सफ़र की,
उम्र गुज़र गई सफ़र में पर,
फांसले तो अब भी कुछ कम नहीं |
बेरंग, गुमराह चल रही है सफ़र पे,
हर रोज़ वापिस वहीँ लौट आने को|
करते हैं इंतज़ार सुबह को ऐसे,
कि भर दे चाभी कोई शाम तक सफ़र की,
उम्र गुज़र गई सफ़र में पर,
फांसले तो अब भी कुछ कम नहीं |
No comments:
Post a Comment