Mirrors of Life!

Mirrors of Life!

Sunday, August 19, 2012

मैं था हर कहीं और नहीं भी था


सफ़ेद कागज़ पे काले अक्षरों से गड़े
वोह कलम के  धब्बों  के  बीच 
अचानक  ज़ाहिर  होते  मंज़रों  में 
मैं  था  हर  कहीं ,
और  नहीं  भी  था .


चूने  पत्थर  की  बजाये , टेडी  मेडी लकीरों  से  बने ,
उन  दीवारों , उन  कूचों , कभी  न  खत्म  होते 
गलियों  के  गलियारों  में 
मैं  था  हर  कहीं 
और  नहीं  भी  था 

रंगीन  कांच  से  बनी  इमारतें  वोह 
की  जहाँ  नंगाई  दिखाने  को  भी  चादर  ओड़ते हैं  लोग ,
शाम ढलते ही,
साफ़   कांच  में  बदल  जाने वाली  उस  ईमारत  में ,
मैं  था  हर  कहीं 
और  नहीं  भी  था 

पहन मुखौटा  उसका  जो  वो  थे  न  कभी 
खुद  को  झुठला  कर 
दोहरी  ज़िन्दगी  जिए  जा  रही  उस  भीड़  में 
मैं  था  हर  कहीं 
और  नहीं  भी  था 

बस  इक  ऊँगली  के  इशारे  पे  रंग  बदलते ,
हँसते  सूरज  रोते  सावन  के  बीच ,
जिन्न  और  परियों  की  मदहोश  दुनिया  में 
मैं  था  हर  कहीं ,
और  नहीं  भी  था 

के  तभी  किसी  ने  अचानक यूँ ही 
उस  अँधेरे  कमरे  में  उजाला  कर  दिया 
की  मैं   लौट  आया  उस  जहान  से  जहाँ ,
मैं  था  हर  कहीं 
और  नहीं  भी  था |

-Anonymous